Computerisation
and Online
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v UPSWAN-2004
v जमीन - आन-लाइन –आफ लाइन
v उत्तर प्रदेश स्टेट वाइड एरिया नेटवर्क (यूपीस्वान)
v नये सर्वर पर पुराने कम्प्यूटर
v ई –गवर्नेंस के कुछ बिंदु
सुप्रीम कोर्ट ने जज बनने के लिए कंप्यूटर के बुनियादी ज्ञान की अनिवार्यता को 2010 में ही सही ठहराया है। कोर्ट ने कहा कि अदालतों में बेहतर प्रबंधन के लिए भारतीय न्यायपालिका ई- गवर्नेंस लागू कर रही है। आने वाले समय में देश की सारी अदालतें कंप्यूटरीकृत होंगी। ऐसे में नियुक्त होने वाले नए जजों से कंप्यूटर का बुनियादी ज्ञान होने की उम्मीद की जाती है। बदलते परिदृश्य में नए जज की नियुक्ति के लिए कंप्यूटर के ज्ञान की अनिवार्यता की शर्त को अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह बात न्यायमूर्ति मुकुन्दकम शर्मा व न्यायमूर्ति अनिल आर दवे की पीठ ने उत्तरांचल न्यायिक सेवा में सिविल जज (जूनियर डिवीजन) की भर्ती में कंप्यूटर के बुनियादी ज्ञान की अनिवार्यता को चुनौती देने वाली विजेंद्र कुमार वर्मा की याचिका खारिज करते हुए अपने फैसले में कही है। कोर्ट ने कहा कि कंप्यूटर चलाने के बुनियादी ज्ञान की शर्त को हटाया या कम नहीं किया जा सकता। हालांकि कोर्ट ने विशेषज्ञ द्वारा कंप्यूटर ज्ञान की जांच के तरीके पर कोई भी टिप्पणीं करने से इंकार कर दिया।
२६ जुलाई २०१० सुप्रीम कोर्ट ने वकीलों को ऑफिशल कामकाज में ईमेल का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करने को कहा है ताकि लंबे समय से लटकी पिटिशनों पर फौरन सुनवाई हो,
खासकर कमर्शल मामलों में। कोर्ट ने कहा कि 50 फीसदी मामले सिर्फ इसलिए पेंडिंग हैं कि अर्जियां और दस्तावेजों की रजिस्ट्री केस लड़ रहे पक्षों को वक्त पर नहीं पहुंच पाती।
चीफ जस्टिस एस. एच. कपाड़िया की बेंच ने कहा कि पिटिशन, ऐफिडेविट और दूसरे कागजात दाखिल करते वक्त वकील ईमेल का यूज करें। इनकी सॉफ्ट कॉपी वे पेन ड्राइव या सीडी के जरिए सेव करें और केस से जुड़े पक्षों को मेल करें। इस दौरान कोर्ट में अटॉर्नी जनरल जी. ई. वाहनवती भी मौजूद थे। उन्होंने इस फैसले पर खुशी जताते हुए कहा कि कैबिनेट सेक्रेटरी सभी सरकारी विभागों के अफसरों की ईमेल आईडी दो हफ्ते के अंदर भिजवा देगी।
चीफ जस्टिस एस. एच. कपाड़िया की बेंच ने कहा कि पिटिशन, ऐफिडेविट और दूसरे कागजात दाखिल करते वक्त वकील ईमेल का यूज करें। इनकी सॉफ्ट कॉपी वे पेन ड्राइव या सीडी के जरिए सेव करें और केस से जुड़े पक्षों को मेल करें। इस दौरान कोर्ट में अटॉर्नी जनरल जी. ई. वाहनवती भी मौजूद थे। उन्होंने इस फैसले पर खुशी जताते हुए कहा कि कैबिनेट सेक्रेटरी सभी सरकारी विभागों के अफसरों की ईमेल आईडी दो हफ्ते के अंदर भिजवा देगी।
आजतक उ०प्र० मे इस आदेश का पता नही है!
सूचना अधिकार कानून की धारा-4 में सभी विभागों से अपेक्षा की गयी है कि वे
अपने विभाग से संबन्धित तमाम जानकारियां इंटरनेट तथा अन्य माध्यमों से इस
तरह प्रकाशित करेंगें कि उसे देश भर में देखा जा सके। इस काम को 12 अक्तूबर 2005 तक पूरा कर लेना था, लेकिन चार वर्षो बाद भी यह आंशिक रूप से किया जा सका है। इसके
लिए जबाबदेही सुनिश्चित करने की प्रक्रिया नहीं तय की गयी है और उससे भी अधिक
यह कि जवाबदेह अधिकारी को दंडित किए जाने का प्रावधान भी नहीं है। अत: इस कानून के अन्तर्गत निर्धारित दायित्वों की
घोर
अनदेखी की जा
रही है। यदि धारा-4 में वांछित सूचना हर विभाग द्वारा उपलब्ध करा
दी जाय तो बहुत सी आपत्तियों का स्वत: निवारण हो जाय।
दैनिक जागरण में दिनांक 11-04-2008 की यह खबर
अवलोकनीय है:- वाराणसी। 73 हजार किसानों को सूखा राहत की मदद का ढिढोरा
पीट वाहवाही लूटनेवालों को अंतत: मुंह की खानी पड़ी। किसानों ने सूचना
अधिकार के तहत जहां सरकार व डीएम सहित अन्य अधिकारियों को लपेटा वहीं उनके खिलाफ चेक
बाउंस के आधार पर मुकदमा भी लाद दिया। इसका नतीजा रहा कि सरकार को वित्तीय वर्ष
2007-08
की समाप्ति से
पूर्व एक करोड़ 80 लाख 65 हजार रुपये यहां के किसानों के लिए जारी करने
पड़े।
इस आशय का आदेश
राहत आयुक्त एवं सचिव जीके टंडन ने 31 मार्च को जारी किया। इस प्रकार वर्ष 2004-05
में घोषित सूखे के
राहत की राशि चार साल बाद किसानों को मिलेगी।
वर्ष 2004-05
में जनपद को
सूखाग्रस्त घोषित किया गया। लंबे इंतजार के बाद सूखा राहत के चेक का
वितरण यहां प्रारंभ हुआ। इसी के साथ किसानों की दुर्दशा भी प्रारंभ हो गई। यहां छोटी
जोत वाले किसानों की संख्या ज्यादा होने के सौ से दो सौ रुपये पानेवाले किसानों
की संख्या ज्यादा रही। इस पंजीरीवाले चेक को पाना भी आसान नहीं था। किसी तरह
किसानों ने इस चेक को लगाया तो चेक बाउंस हो गए। ज्यादा बड़ी राशि न होने के कारण
किसान भी किसी से कुछ कहने में सकुचा रहे थे।
'जागरण' ने कई बार इस
मामले को उठाया लेकिन अफसरशाही के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। वह तो
सूचना का अधिकार जब प्रभावी हुआ तो अखबार की कटिंग व बाउंस चेकों के साथ पूर्व डिप्टी
एसपी शैलेंद्र सिंह की अगुवाई में कांग्रेस के सूचना अधिकार टास्क फोर्स ने लखनऊ में
घेरेबंदी की। जनपद में किसानों से संपर्क कर सत्यनारायण पांडेय ने सारे दस्तावेज
तैयार कर लंबी लड़ाई छेड़ दी। आमतौर पर संतोषी किसान इस तरह अपने हक की लड़ाई नहीं लड़ता
लेकिन जब उसे साथ मिला तो चल पड़ी लड़ाई। जिला प्रशासन चेक बाउंस होने का जवाब नहीं
दे सका।
यह जानकारी अवश्य
मिली कि वर्ष 2004-05 में सूखे के दौरान 50 फीसदी व इससे अधिक फसल की क्षति दो
लाख 19 हजार 911
किसानों की हुई
थी। प्रत्येक किसान को 1265 रुपये की दर से कुल पांच
करोड़ 79 लाख रुपये बंटने
थे। सभी को चेक काट दिए गए। इसमें से एक लाख 46 हजार 847
किसानों के बीच
तीन करोड़ 98 लाख 37 हजार रुपये वितरित किये गए। वहीं 73 हजार 64 लोग सूखा राहत
पाने से वंचित रह गए। खाते में पैसा न मिलने के कारण उन्हें मिला
शासकीय चेक बाउंस हो गए। प्रशासन ने सूचना देने के दौरान बैंक को दोषी बनाया। सूचना आयोग
में प्रशासन तलब हुआ। यहीं पर लड़ाई टास्क फोर्स ने नहीं खत्म की। हाईकोर्ट में वाद
दाखिल किया तो वहां से आदेश पारित हुआ कि सीजेएम वाराणसी मामले को संज्ञान में लेकर
कार्रवाई करें। स्थानीय न्यायालय ने जिम्मेदार अफसरों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज
कराकर विवेचना का आदेश दिया।
वर्ष 2007
के जुलाई माह में
प्राथमिकी के आदेश के बाद से ही जिला प्रशासन पर दबाव बढ़ गया था।
अंतत: वित्तीय वर्ष के अंतिम दिन राहत आयुक्त ने 73 हजार 64 किसानों के लिए धन
जारी कर दिया।
उत्तर-प्रदेश
में मार्च 2013 में इस आशय का शासनादेश जारी हुआ कि BPL परिवार के प्रत्येक बुजुर्गों
को 2 साड़ी और 1 कम्बल दिया जाएगा.पंचायत राज बिभाग को नोडल एजेंसी बनाया गया. डीएम
को जिला स्तर पर खरीद और बंटवारा का जिम्मा दिया गया.अब अगस्त में पता चला कि सरकार के स्पेसीफिकेशन और बुनकर के
स्पेसीफिकेशन में मतेक्य नहीं हो रहा है.
सरकार के अफसरों में भी असमंजस है.पंचायत राज बिभाग के अधिकारी केन्द्रीय खरीद
चाहते हैं,तो शासन पारदर्शिता और गुणवता के लिए जिलास्तर पर खरीद चाहता है. 60%
साड़ी बुनकरों से,और 40% उपिका,हैंडलूम और नेशनल टेक्सटाइल कारपोरेशन से खरीद की जानी है .कम्बल नेशनल टेक्सटाइल
कारपोरेशन से लेना है.230 रूपया प्रत्येक
साड़ी,और 425 एक कम्बल का दाम निर्धारित है. 4 करोड़ साड़ी,और 60 लाख कम्बल खरीदा
जाना है.यह समाजवादी दल के चुनावघोषणा पत्र का वादा है. अतीत में कुछ बिभाग ने
कम्बल गर्मी में बंटवाया है. शासनादेश की
इतनी दुर्गत अन्यत्र संभव नहीं . कुछ साल पहले लखनऊ में एक नेता के मुफ्त
साड़ी बांटने में जो भगदड़ मची, वह तमाम औरतों और बच्चों की जिंदगी खत्म करने
के बाद ही थमी।
कम्प्यूटर,इंटरनेट ,वेब
एड्रेस और गूगल इत्यादि ने पूरे बिश्व को एक ग्लोबल परिवार बना दिया है.न किसी के
निर्देश की आवश्यकता है,न किसी सूचना और डाटा के लिए किसी से अनुरोध की आवश्यकता
है.यदि सेवा प्रदाता ने सेवा भाव से से सभी आवश्यक सूचना जन सामान्य को सुलभ करने
में अपनी खुशी समझी है.आज जितनी भी जानकारी सुलभ है ,वह इसी खुशी का परिणाम है.यह
मीटिंग,निर्देश,आदेश और शासनादेश से नहीं आ सकती है.कम्प्यूटर इसको समझ भी नहीं
पाता ,इसके लिए कम्प्यूटर मशीन पर खुद बैठना पड़ता है.एक ही सूचना १० जगह,१० वेब
एड्रेस पर उपलब्ध हैं,जहां से चाहे वहाँ से प्राप्त कर लीजिये. यहाँ तो किसी का e-mail एड्रेस खोजिये नहीं मिलेगा.मैं जिला
पंचायत राज अधिकारी का e-mail एड्रेस के लिए
जिले के वेब एड्रेस पर गया,न मिलने पर बिभाग के अंत में राज्य के वेब एड्रेस पर
कहीं नहीं मिला. कम्प्यूटर,इंटरनेट ,वेब एड्रेस तभी सहायक होगा जब इसमें सूचनाएं सही और ईमानदारी से भरी जायेंगी.In-put जैसा
रहेगा वही out-put में दिखाई देगा.सरकारी वेबसाइट पर कोई भी सूचना अपडेट नहीं
मिलेगी. अब सरकारी पालीटेक्निक कालेजों का प्रवेश आन-लाइन है,काउंसिलिंग की
वेबसाइट पर सीटें खाली दिखाई जा रहीं हैं लेकिन छात्र जब ट्रेजरी चालान से फीस जमा
कर कालेज पहुंचता है तो वहाँ सीट फुल बतायी जाती है.इतनी बड़ी धांधली यह कह कर टाल
दी जा रही है कि सर्वर की दिक्कत के कारण हो रहा है. दिक्कत यह है कि कम्प्यूटर,इंटरनेट
,वेब एड्रेस को ईमानदारी से नहीं चलाया जा रहा है.
श्रीचंद जैन ने पुरातात्विक धरोहरों की बदहाल स्थिति के मुद्दे पर 2006 में दिल्ली
हाईकोर्ट में दाखिल याचिका में कहा था कि
स्मारकों को तहस-नहस कर उनकी जमीन पर भू-माफिया ने कब्जा कर लिया है। याचिका में कहा गया था
कि
स्मारकों में स्थित दुर्लभ मूर्तियों को भी तस्करों
ने गायब कर विदेशों में बेच दिया है। याचिका के अनुसार 1857 के संग्राम में प्रयोग होने वाली चार तोपें भी कश्मीरी गेट क्षेत्र से गायब हो गई हैं।
इसी प्रकार मोरी गेट पर लगी निकोलसन की मूर्ति का भी कहीं अता-पता नहीं है। 1857 के संग्राम के दौरान हिंद फौज के सिपाही मेरठ की जिस छावनी में रुके थे उस छावनी पर पूरी तरह से अवैध
कब्जा हो चुका है। देश भर में ऐतिहासिक महत्व के 35 स्मारकों के गायब होने की बाबत हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा था। हाईकोर्ट में सौंपे हलफनामे में सरकार ने कहा कि शहर के सघन विकास और आधुनिकीकरण के
कारण कुछ स्मारकों का ऐतिहासिक महत्व समाप्त हो गया है और वे गायब हो गए हैं। सरकार ने इन बारह स्मारकों का
नाम 'संरक्षित स्मारकों' की सूची से हटाने की अनुमति कोर्ट से मांगी है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि दिल्ली के विकास की योजनाओं के क्रियान्वयन के समय कुछ स्मारकों को हटा दिया गया था। मसलन सत्तर के दशक में दिल्ली-रोहतक रोड तैयार करते समय 'पुल-चादर' को तोड़ दिया गया था। अलीपुर गांव के पास जीटी करनाल रोड बनाते समय 'अलीपुर कब्रगाह' को तोड़ा गया था। इसी प्रकार मौजा बाबरपुर बाजीदपुर के पास स्थित 'शेरशाह का मोती गेट' भी गायब हो चुका है। हलफनामे के अनुसार दिल्ली में ऐतिहासिक महत्व के 172 स्मारक हैं और 12 को छोड़कर बाकी स्मारकों का ऐतिहासिक स्वरूप बरकरार रखने की दिशा में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) विभाग पूरा प्रयास कर रहा है और स्मारकों पर हुए अवैध कब्जों को हटाया जा रहा है।
सरकार ने याचिका के उस हिस्से को बेबुनियाद बताया है जिसमें कहा गया था कि पिछले पांच वर्षो के दौरान राजधानी के विभिन्न स्थानों पर लगी दुर्लभ मूर्तियां तस्करों की भेंट चढ़ रही हैं। सरकार का कहना है कि याचिकाकर्ता इस संबंध में कोई सबूत पेश नहीं कर पाया है इसलिए यह याचिका खारिज कर दी जाए। सरकार का कहना है कि केवल निकोलसन की मूर्ति को वर्ष 1970 में कनाडा ले जाया गया था।
अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) की वेबसाइट देखें . एएसआइ की केन्द्रीय वेबसाइट और सर्किल (आगरा,लखनऊ इत्यादि) की वेब साइट में स्मारकों की संख्या में 55 स्मारकों का अंतर है.आगरा सर्किल की वेबसाइट में संरक्षित स्मारकों की संख्या 397 है जब कि केन्द्रीय वेबसाइट इस सर्किल में धरोहरों की संख्या 265 बताती है.जिससे यह सिद्ध होता है कि गणना भी ठीक नहीं है.गुम विरासतों के मामलें में संसद में भी गलत बयानी की गयी है.2006 में दिल्ली हाईकोर्ट में दाखिल हलफनामा व अप्रैल 2012 में एएसआइ ने संस्कृति मंत्रालय के जरिये संसद को बताया था कि केन्द्रीय स्तर से संरक्षित स्मारकों कीसूची में केवल 35 स्मारकों का अस्तित्व ख़त्म हुआ है. एएसआइ अपनी स्थापना के 150 वर्ष का जश्न मना रही है. भारत के पहले पुरातात्विक आडिट ने 1500 स्मारकों की मौके पर पड़ताल की ,इनमें 81 स्मारक नहीं मिले. एएसआइ की सूची में 3778 स्मारक हैं.आज भी कंप्यूटर के जमाने में सरकारी लोगो की कार्यशैली यह है.जश्न,मीटिंग,कार्यशाला,स्टडी टूर,प्रशिक्षण और पुनश्चर्या प्रशिक्षण तफरीह के साथ-साथ धन, और समय की बर्बादी है.
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की ओर से दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि दिल्ली के विकास की योजनाओं के क्रियान्वयन के समय कुछ स्मारकों को हटा दिया गया था। मसलन सत्तर के दशक में दिल्ली-रोहतक रोड तैयार करते समय 'पुल-चादर' को तोड़ दिया गया था। अलीपुर गांव के पास जीटी करनाल रोड बनाते समय 'अलीपुर कब्रगाह' को तोड़ा गया था। इसी प्रकार मौजा बाबरपुर बाजीदपुर के पास स्थित 'शेरशाह का मोती गेट' भी गायब हो चुका है। हलफनामे के अनुसार दिल्ली में ऐतिहासिक महत्व के 172 स्मारक हैं और 12 को छोड़कर बाकी स्मारकों का ऐतिहासिक स्वरूप बरकरार रखने की दिशा में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) विभाग पूरा प्रयास कर रहा है और स्मारकों पर हुए अवैध कब्जों को हटाया जा रहा है।
सरकार ने याचिका के उस हिस्से को बेबुनियाद बताया है जिसमें कहा गया था कि पिछले पांच वर्षो के दौरान राजधानी के विभिन्न स्थानों पर लगी दुर्लभ मूर्तियां तस्करों की भेंट चढ़ रही हैं। सरकार का कहना है कि याचिकाकर्ता इस संबंध में कोई सबूत पेश नहीं कर पाया है इसलिए यह याचिका खारिज कर दी जाए। सरकार का कहना है कि केवल निकोलसन की मूर्ति को वर्ष 1970 में कनाडा ले जाया गया था।
अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) की वेबसाइट देखें . एएसआइ की केन्द्रीय वेबसाइट और सर्किल (आगरा,लखनऊ इत्यादि) की वेब साइट में स्मारकों की संख्या में 55 स्मारकों का अंतर है.आगरा सर्किल की वेबसाइट में संरक्षित स्मारकों की संख्या 397 है जब कि केन्द्रीय वेबसाइट इस सर्किल में धरोहरों की संख्या 265 बताती है.जिससे यह सिद्ध होता है कि गणना भी ठीक नहीं है.गुम विरासतों के मामलें में संसद में भी गलत बयानी की गयी है.2006 में दिल्ली हाईकोर्ट में दाखिल हलफनामा व अप्रैल 2012 में एएसआइ ने संस्कृति मंत्रालय के जरिये संसद को बताया था कि केन्द्रीय स्तर से संरक्षित स्मारकों कीसूची में केवल 35 स्मारकों का अस्तित्व ख़त्म हुआ है. एएसआइ अपनी स्थापना के 150 वर्ष का जश्न मना रही है. भारत के पहले पुरातात्विक आडिट ने 1500 स्मारकों की मौके पर पड़ताल की ,इनमें 81 स्मारक नहीं मिले. एएसआइ की सूची में 3778 स्मारक हैं.आज भी कंप्यूटर के जमाने में सरकारी लोगो की कार्यशैली यह है.जश्न,मीटिंग,कार्यशाला,स्टडी टूर,प्रशिक्षण और पुनश्चर्या प्रशिक्षण तफरीह के साथ-साथ धन, और समय की बर्बादी है.
भारत सरकार की राष्ट्रीय आँकड़ा भागिता और अभिगम्यता नीति(एनडीएसएपी) के तहत
काम की शुरूआत की जा चुकी है.अब उत्तर-प्रदेश की डाटा-नीति की एकरूपता के लिए
विज्ञान और प्रोद्योगिकी मंत्रालय उत्तर-प्रदेश को समन्वयक बनाया गया है तथा दिनांक
15-07-13 से 2 महीने का समय दिया गया है
कि बिभागों में समन्वय स्थापित कर आवश्यक डाटा तैयार करे और उसे बिभाग तथा उ०प्र०
की वेबसाइट पर रखना सुनिश्चित करें.यह यूपी स्टेट डाटा शेयरिंग एंड एक्सेसबिलिटी
होगी. बिभाग ने ड्राफ्ट पालिसी बनाने की जिम्मेदारी रिमोट सेंसिंग अप्लीकेशन सेंटर
को दी है. मुख्य सचिव ने माना कि
बिभागों की वेबसाइट पर सार्वजनिक आवश्यक सूचनाओं का अभाव है,तथा कुछ बिभाग तो आज
भी यह निश्चित नहीं कर पाए कि उनकी कौन सूचना सार्वजनिक है,कौन गोपनीय है. दो
महीने बाद आप इसे updata.gov.in पर एक क्लिक में देख पायेंगे. यह देखने में मिलता है कि
बिभागों के शासन तथा जिला स्तर के अधिकारियों के ई-मेल एड्रेस तक नहीं दर्ज हैं जब
कि इसे NIC ५ साल पूर्व ही बिभागों को
उपलब्ध करा दिया है.
वास्तविकता देखिये रिमोट सेन्सिंग एप्लीकेशन सेंटर को २००८-०९ में ५० लाख रूपये प्रदेश के खसरा
को आन लाइन करने के लिए स्वीकृत किये गए हैं, जो अभी तक नहीं हो
पाए हैं.इस नयी जिम्मेदारी को देने का कारण और उद्देश्य यह बताया गया गया है कि बिभिन्न संस्थानों व संगठनों द्वारा पब्लिक
मनी का प्रयोग कर सृजित आंकड़े समाज के हर वर्ग को सुलभ हो सके.आंकड़ों का एक जगह न
होने से अध्ययनों का दोहराव होता हैतथा विकास कार्यों में इनका पूरा इस्तेमाल नहीं
हो पाता .अक्सर एक ही तरह के अध्ययनों के लिए अलग एजेंसी का गठन तक हो जाता है
जिससे अनावश्यक आर्थिक बोझ पड़ने के साथ समय की बर्बादी होती है. रिमोट सेन्सिंग
एप्लीकेशन सेंटर ने यह बताना आवश्यक नहीं समझा कि पहले की सौंपी गयी जिम्मेदारी ही
अभी तक पूरी न हो पायी है,और यह जिम्मेदारी भी सहर्ष ले लिया.
इस रूट की सभी लाइनें
ब्यस्त हैं,यह बार-बार सुनाने पर अब उपभोक्ता सेवा प्रदाता को तुरंत बदल देता
है.उसके पास बिकल्प हैं. 15 जुलाई 13 को BSNL की सभी सेवा दिन में 6 घंटे ठप रही .मोबाइल व इन्टरनेट काम ही नहीं कर
रहा था.बैंक,रेल-रिजर्वेशन आदि सभी सेवाएँ अस्त-ब्यस्त रहीं.सरकारी बिभाग तो आज भी
मोबाइल और इंटरनेट से काम नहीं करते.उनकी अपनी रफ्तार और कार्यशैली अपनी है.आज के
दौर में किसी सेवा प्रदाता का एकाधिकार नहीं है. कुछ सेवा प्रदाता ऐसे भी
हैं,जिनका एकाधिकार है ,लेकिन सेवा देने का जुनून उन्हें रोज नयी सेवा देने हेतु
प्रेरित करता है. ऐसी ही सेवा रेलवे द्वारा S.M.S द्वारा जनरल टिकट सुलभ
कराने की घोषणा है.अभी कुछ दिन पहले ही रिजर्वेशन की S.M.S सेवा शुरू हुयी थी. इस
सेवा हेतु रेलवे व CRISS की तारीफ़ की जानी चाहिए. ऐसी ही एक S.M.S सेवा का दावा उत्तर-प्रदेश
में अगस्त २००८ को ही कर दिया गया है.मुकदमों
की जानकारी S.M.S से देने की . सरकार के खिलाफ सुप्रीमकोर्ट और
हाईकोर्ट में दाखिल मुकदमों की जानकारी पाने के लिए शासन के अफसरों का अब इंतजार नहीं करना
होगा। अब उक्त अदालतों से सरकार के खिलाफ हुए फैसले तथा दाखिल मामले की जानकारी उसी दिन ई-मेल के जरिये
न्याय विभाग को
मिलेगी। इसके अलावा उक्त विभाग के प्रमुख सचिव या विभागाध्यक्ष को भी एसएमएस
के जरिये यह बताया
जायेगा कि उनके विभाग के मामले की सुनवाई कब होगी। इसमें उन्हें क्या जवाब दाखिल करना होगा। ये कार्य
यूपी डेस्को की देखरेख में होगा और इसके लिए निजी क्षेत्र की संस्थाओं की मदद ली जायेगी। महाधिवक्ता के
कार्यालय में कम्प्यूटर का जानकार एक व्यक्ति तैनात किया जायेगा जो सरकार के खिलाफ
हुए फैसले एवं दाखिल हुए मुकदमों का ब्यौरा एसएमएस के जरिये संबंधित विभाग के प्रमुख
अफसरों को देगा। इसके अलावा ई-मेल के जरिये उसका विवरण भेजेगा। सूत्रों के अनुसार
अगले तीन महीनों में यह व्यवस्था पूरी तरह से काम करने लगेगी।वैसे आज भी अफसरों को
S.M.S देखने,पढ़ने की फुरसत नहीं है.इनका सरकारी मोबाइल अर्दली के पास रहता है. इस S.M.S सेवा का अता-पता किसी को नहीं है.
09 अगस्त 2008 दैनिक जागरण की खबर उत्तर प्रदेश स्टेट वाइड एरिया नेटवर्क (यूपीस्वान) की हकीकत बताने के लिए काफी
है- कम्प्यूटर नेटवर्क
से राज्य मुख्यालय को प्रदेश के हर ब्लाक से जोड़ने वाली उत्तर प्रदेश स्टेट वाइड
एरिया नेटवर्क (यूपीस्वान) सूबे के ढांचागत गतिरोधों के बीच हिचकोले खाते हुए
मंथर गति से बढ़ रही है। ई-गवर्नेन्स की अवधारणा को साकार करने के लिए 2004
में स्वीकृत इस
परियोजना का प्रदेश में क्या हाल है, चंद उदाहरण इसे स्पष्ट कर देंगे।
मिसाल के तौर पर
सोनभद्र के म्योरपुर ब्लाक में उत्तर प्रदेश स्टेट वाइड एरिया नेटवर्क के तहत
बनाये गए केन्द्र को जेनरेटर लगाकर चालू तो कर दिया गया लेकिन वहां बिजली नहीं आयी।
यहां जब भी काम होता है, जेनरेटर चलाकर हो पाता है। सोनभद्र के ही घोरावल ब्लाक में
स्वान केन्द्र का ढांचा तो तैयार हो गया है मगर यहां से भारत संचार निगम
लिमिटेड के निकटतम टेलीफोन एक्सचेंज की दूरी लगभग आठ किमी है। सामान्य कम्प्यूटर मोडम
पांच किमी के दायरे में ही काम करता है। जब तक उच्च क्षमता के मोडेम या अन्य वैकल्पिक
उपकरण नहीं मिल जाते, काम रुका रहेगा।
महोबा के पनवाड़ी
ब्लाक में बिजली बमुश्किल दो घंटे आती है। इससे कम्प्यूटर का यूपीएस
(अनइंटर्रप्टेड पावर सप्लाई) चार्ज ही नहीं हो पाता और पौन घंटे चलकर बंद हो जाता है।
औरैया के भाग्यनगर
ब्लाक में स्वान केन्द्र के लिए बीएसएनएल ने जो केबल डाला था, वह पीडब्लूडी
द्वारा सड़क को चौड़ा करने के लिए की गई खोदाई के दौरान कट गया। अब यहां नये सिरे से केबल
डाला जायेगा, तभी काम आगे बढ़ेगा।
बरेली के डमरखोदा
ब्लाक में स्वान केन्द्र और टेलीफोन एक्सचेंज के पास पानी भरा हुआ है, इसलिए काम रुका
है। वहीं सिद्धार्थनगर की डुमरियागंज तहसील के स्वान केन्द्र में बारिश
के पानी के रिसाव से फाल्स सीलिंग खराब हो गई है।
इतनी ही मुश्किलें
क्या कम थीं कि स्वान केन्द्रों पर चोर भी मेहरबान हो गए। योजना को प्रदेश
में क्रियान्वित कर रहे नेशनल इन्फार्मेटिक्स सेंटर (एनआईसी) के अधिकारियों के
मुताबिक बदायूं, मुजफ्फरनगर समेत कुछ अन्य केन्द्रों से उपकरणों
की चोरी की घटनाएं भी प्रकाश में आयी हैं।
इन ढांचागत
गतिरोधों, योजना में शामिल
विभिन्न विभागों के बीच समन्वय के अभाव और प्राकृतिक आपदाओं
के कारण ही यूपीस्वान परियोजना लक्ष्य से पीछे चल रही है। इससे जुड़े एक वरिष्ठ
अधिकारी ने स्वीकार किया कि इसे जनवरी 2008 तक पूरा हो जाना चाहिये था। इसके विपरीत
अब तक प्रदेश में प्रस्तावित 885 केन्द्रों में से लगभग 550
ही चालू किये जा सके
हैं। यूपीस्वान को एक चुनौती के रूप में देखने वाले एनआईसी के निदेशक और राज्य
सूचना विज्ञान अधिकारी एसबी सिंह को उम्मीद है कि अड़चनों के बावजूद इसी महीने सभी
केन्द्रों को चालू कर दिया जायेगा। उन्होंने कहा कि स्वान परियोजना को लागू करने में
प्रदेश की स्थिति अन्य राज्यों से बेहतर है।
इस तरह सरकारी तंत्र है जो नई तकनीक के लागू करने में
पिछड़ रहा है. वजह सेवा देने के जुनून की कमी है.
सरकारी तंत्र की सभी लाइने भ्रष्ट हैं. सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस मार्कडेय काटजू और टी.एस. ठाकुर की पीठ ने कहा, यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश में भ्रष्टाचार पर कोई नियंत्रण नहीं है। सरकारी तंत्र में खासतौर पर आयकर, बिक्रीकर और आबकारी विभागों में बिना पैसे के कुछ काम नहीं होता। आयकर निरीक्षक मोहनलाल शर्मा को बरी करने के पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली सीबीआई की याचिका मंजूर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की। भारत में बांस मिशन का संचालन वन के बजाय कृषि मंत्रालय करता है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय बांस सम्मेलन 2007 में कृषि के बजाय वन राज्यमंत्री महोदय g। जबकि उनके दौरे का सारा खर्च कृषि मंत्रालय वहन करेगा। है
देश में टैक्स चोरी के सबसे बड़े आरोपी हसन अली की आंच उत्तर प्रदेश तक पहुंच गई है। हसन अली प्रकरण में प्रमुख सचिव विजय शंकर पांडे का नाम जुड़ने के बाद मुख्यमंत्री ने उन्हें उनके वर्तमान पदों से न केवल हटा दिया है बल्कि पूरी तौर पर पल्ला भी झाड़ लिया है। शनिवार की शाम कैबिनेट सचिव शशांक शेखर सिंह ने प्रेस कांफ्रेंस कर दो टूक शब्दों में कह दिया कि कोई भी एजेंसी हसन अली प्रकरण में विजय शंकर पांडे से पूछताछ के लिए स्वतंत्र है। इसमें कहीं भी राज्य सरकार बाधा नहीं बन रही है। हसन अली प्रकरण में विजय शंकर पांडे की जो भूमिका हो, वह उनका व्यक्तिगत कृत्य है। इसमें मुख्यमंत्री सचिवालय या प्रदेश सरकार कहीं भी बीच में नहीं आती है। इस प्रकरण में विजय शंकर पांडे व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होंगे। विजय शंकर के साथ ही आईपीएस अधिकारी जसवीर सिंह का भी लखनऊ से तबादला कर दिया है। जसवीर सिंह लखनऊ में पुलिस प्रशिक्षण मुख्यालय में डीआईजी थे। उन्हें अब आरटीसी चुनार का डीआईजी बनाते हुए मीरजापुर भेज दिया गया है। जसवीर सिंह को लेकर कैबिनेट सचिव ने कहा कि उन्होंने कहां और क्या शपथ पत्र दिया है, यह जानकारी सरकार को नहीं है और ना ही सरकार का उससे कोई लेना-देना है। जसवीर सिंह को विजय शंकर पांडे विशेष कार्याधिकारी के रूप में सूचना विभाग में लाए थे।
हसन अली प्रकरण में विजय शंकर पांडे का नाम उछलने के बाद सूबे की नौकरशाही में भले ही खलबली मच गई हो और राज्य सरकार को अपनी छवि पर आंच आने से बचाने को आनन-फानन में कार्रवाई करनी पड़ी हो, लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि उप्र के अफसरों के दामन जब-तब दागदार होते रहे हैं। यहां तक कि मुख्य सचिव रह चुकीं नीरा यादव और अखंड प्रताप सिंह को भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में जेल तक जाना पड़ा है। आज की तारीख में राज्य के दो दर्जन से ज्यादा आईएएस और पीसीएस अधिकारी करोड़ों रुपये खाद्यान्न घोटाले में आरोपी हैं। उनके खिलाफ जांच चल रही है। 25 आईपीएस और 104 पीपीएस के खिलाफ पुलिस भर्ती घोटाले में मामले में मुकदमा दर्ज है। यह माना गया है कि पूर्ववर्ती मुलायम सरकार में 17 हजार से अधिक सिपाहियों की भर्ती में इन अफसरों ने सारे नियमों को नजरअंदाज करते हुए गलत तरीके से भर्ती की। नोएडा भूमि घोटाले में भी 15 बड़े अफसरों के नाम उजागर हुए थे। यह घोटाला पांच सौ करोड़ रुपये का आंका गया था। इस घोटाले में 15 अफसरों के खिलाफ बकायदा एफआईआर दर्ज चल रही है। ट्रानिका सिटी घोटाले में भी दो आईएएस अधिकारी आरोपी हैं। एक अन्य आईएएस अधिकारी ललित वर्मा के खिलाफ भी 1977 में आय से अधिक सम्पत्ति का मामला दर्ज हो चुका है। निर्यात निगम के एमडी रह चुके आईएएस अधिकारी तुलसी गौड़ के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच सर्तकता अधिष्ठान कर चुकी है। उनके खिलाफ हजरतगंज थाने में एफआईआर भी दर्ज है। इसके अलावा भ्रष्टाचार निवारण संगठन
70, सतर्कता विभाग 150 और आर्थिक अपराध संगठन 105 मामलों की जांच कर रहा है।
गोमतीनगर(लखनऊ) में स्थित होटल ताज में क्षेत्रीय नगर
एवं पर्यावरण अध्ययन केन्द्र द्वारा आयोजित 'ई गवर्नेस इन
अर्बन लोकल बाडीज: रिडिफाइनिंग
गवर्नेस' विषयक दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार को संबोधित करते हुए 24 नवम्बर 2007 को आईआईएम लखनऊ के प्रो.भारत भास्कर ने कहा कि ई- गवर्नेस के जरिये
ही देश में भ्रष्टाचार को खत्म किया जा सकता है। यह सरकार का कम्प्यूटर पर
इंटरनेट संस्करण है, जिसके जरिये हम सरकारी कामकाज को घर बैठे देख सकते हैं। कार्यक्रम में भारत सरकार के
शहरी विकास विभाग के सचिव सुभाष चंद्रा ने बताया कि सरकारी विभागों में आपसी
समन्वय न होने के कारण ई-गवर्नेस लागू करने
में दिक्कत आ
रही है। सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी टीएन धर ने कहा कि सूचना प्रौद्योगिकी व
सूचना का अधिकार एक सिक्के के दो पहलू हैं। हम इसका प्रयोग करके आमजनों को शक्तिशाली बना सकते
हैं। उन्होंने बताया कि
नगर विकास में ई-गवर्नेस लागू करने
के लिए 750 करोड़ रुपये खर्च किये जा रहे हैं।
असली वजह शासन-प्रशासन की उपेक्षा है.शिकायत करने का हाईटेक तरीका लोकवाणी
दम तोड़ती नजर आ रही है। लोग अपनी समस्या सीधे डीएम
से अवगत कराने के लिए इण्टरनेट के जरिये न्यूनतम शुल्क में लोकवाणी केन्द्रों से सुविधा के तहत
काफी राहत महसूस कर रहे
थे। जब भी लोकवाणी
केन्द्र पर देखता है तो लम्बित है, स्क्रीन पर दिखाई देता है। लोगों के लिए सबसे उपयुक्त व आसान लगने वाली यह
योजना अधिकारियों की उपेक्षा के चलते धराशाई है।तहसील दिवस,थाना दिवस में भीड़ इसको सिद्ध करती है.
उत्तर-प्रदेश में 15 जुलाई 13 को मुख्य-सचिव की अध्यक्षता में जमीन के नक़्शे को
आन-लाइन करने की मीटिंग थी,जो टालनी पडी.जाहिर है जमीन के नक़्शे आन लाइन होने में
देर होगी . वैसे उत्तर-प्रदेश में जमीन के नक़्शे आन-लाइन होंगे तो किस तरह के
होंगे ,उसका एक नमूना देखे.
यह मैं नहीं उनकी कार्यशैली कह रही है. इसका एक
छोटा नमूना वाराणसी जिला में देखिये :-
जमीन के
नक्शा,रकबा,स्वत्व व अधिकार के लिए जिला स्तर पर राजस्व बिभाग के मुखिया
कलक्टर तथा शहरी जमीन के लिए कलक्टर,निगम आयुक्त और बिकास प्राधिकरण उपाध्यक्ष/अध्यक्ष
सही बिधिक स्थिति हेतु जिम्मेदार हैं. इन्हीं की रिपोर्ट को अदालतें और शासन मानता
हैं. जब इन्हीं लोगो का तानाशाही ,मनमाना और शर्मनाक आचरण जमीन को लेकर रहेगा,तब
तो समाज में शान्ति और न्याय का शासन रहना मुश्किल है. वाराणसी संस्कृत
विश्वविद्यालय की जमीन एक चहारदीवारी में लगभग ५५ साल से उसके उपयोग में है.
राजस्व बिभाग की टीम १६ जुलाई को चौकाघाट छोर की तरफ की विवि परिसर में पैमाईस की
थी. इसी तरफ विवि ने नगर निगम से कूड़ा गिराने हेतु समझौता किया था,जिससे नीची जमीन
समतल हो रही थी,और एक गेट कूड़ागाडी की सुबिधा हेतु लगा दिया गया था.उक्त दोनों कार्यों के को देखकर जिला प्रशासन ने एक हेक्टेयर भूमि राज्य सरकार
का विवि परिसर में होने का दावा किया. कभी भी विश्वविद्यालय प्रशासन से न तो
मीटिंग,न कोई इस आशय की नोटिस ही दी गयी. 17 जुलाई 3.30 बजे अपरान्ह जिला प्रशासन
की टीम बाउंड्री तोड़कर उक्त जमीन का कब्जा लेने आ गयी . जानकारी होते ही कुलपति
प्रोफ़ेसर बिंदा प्रसाद पहुंचे. पता चला कि जिला प्रशासन मनमानी कर यहाँ निजी बस
स्टैंड बनवाना चाहता है. निजी बस स्टैंड हेतु इतना मनमाना शर्मनाक आचरण देख
जनसामान्य,छात्र,कर्मचारी और अध्यापक इकट्ठे हो गए. कुलपति महोदय का कथन कि यह बाउंड्री ५५ साल पुरानी है,यह भू-भाग राजा
जौनपुर द्वारा दान में मिली है,और ५५ साल तक किसी शासन-प्रशासन ने इसे अनियमित
नहीं कहा है.वर्तमान जिला प्रशासन द्वारा विवि से न कोई वार्ता न मीटिंग , सीधे
कब्जा हेतु धावा बेशर्म तानाशाही का परिचायक है, अभिमानी,अनाडी और लालची प्रशासन
पर असरकारक नहीं हुआ. इस अपमानजनक आचरण को देख प्रति-कुलपति प्रो० यदुनाथ दूबे,चीफ
प्राक्टर प्रो० केदार नाथ त्रिपाठी स्वयं धरने पर बैठे. प्रशासन ने भारी संख्या
में पुलिस बल बुला लिया. जनसामान्य,छात्र,कर्मचारी और अध्यापक भी नारेबाजी करने
लगे और रास्ता जाम कर दिया.देर शामतक पुलिस वगैरह के हटने के बाद विवि प्रशासन ने
कूड़ावाला गेट भी सील कर दिया तथा कूडा गिराने के समझौते को रद्द कर दिया. जमीन के
सम्बन्ध में इस तरह की जानकारी सरकारी बिभागों में है जिसके बल पर जन-सामान्य को
न्याय देने का दावा /डींग वह कर सकता है , जनता को तो कोई उम्मीद नहीं . कम्प्यूटराइजेशन
तो अफसरों का आचरण नहीं बदल सकता.
संपत्ति और संसाधन सीधे ब्यक्ति की जिन्दगी को
प्रभावित करते हैं. ०१ अगस्त २००७ को ७ बिकलांग लोग गुरुबाग जो वाराणसी में लक्शा
थाने से महज ३०० मीटर दूर होगा ,जहर खाकर
सड़क पर मर गए .२ घंटे तक सड़क पर तड़पते रहे ,प्रशासन का कथन कि नाटक कर रहे
हैं.मेडिकल सहायता की कोई आवश्यकता नहीं है. जब एक,दो कमजोर स्वास्थ्य वालों की
शरीर मर कर शिथिल पड गयी,तो सबको अस्पताल ले जाया गया.५ ने दम तोड़ दिया. बिकलांगों
की गुमटी जिसके सहारे उनका गुजर वसर चल रहा था. उठाकर जब्त कर ली गयी थी. उनकी
जीविका के लिए कोई बैकल्पिक ब्यवस्था/जगह नहीं दी गयी. दूसरी तरफ
साहूपुरी फेक्टरी जो एक समय वाराणसी ,अब चंदौली जिला में है की १००
हेक्टेयर जमीन निजी डभलपर (developer) को २३-०२-२०१० को दे दी गयी . १ हेक्टेयर संस्कृत विश्व विद्यालय
की जमीन हेतु यह आचरण और १०० हेक्टेयर जमीन हेतु दूसरा आचरण. दोनों में एक समानता
है कि एक में निजी बस स्टैंड है तो दूसरे में निजी डभलपर (developer) है. जमीन सम्बंधित
प्रशासनिक खेल आज भी बदस्तूर (साथ दस्तूर) जारी है.
दूसरा उदाहरण भी वाराणसी का ही है.
कैथी में गोमती नदी ने वर्ष 1979 में अपना रास्ता बदला तो
गाँव की 626 एकड़ जमीन कटकर गाजीपुर के कुसहाँ और
खरौना से जा मिली और वहाँ के किसान उसपर खेती करने लगे. 1983 में वाराणसी के मंडलायुक्त
की अध्यक्षता में दोनों जनपद के जिलाधिकारियों व सम्बंधित अधिकारियों की बैठक हुई.
कैथी के किसान सुरेश प्रताप सिंह के अनुसार अफसरों ने बताया कि बैठक में उक्त भूमि
को 3 श्रेणियों में
बांटा गया.
श्रेणी – 1- इस जमीन पर कैथी के किसान खेती करेंगे
श्रेणी-2- इस जमीन पर कुसहाँ और खरौना के किसान खेती
करेंगे.
श्रेणी-3- करीब 90 एकड़ जमीन को बेहद विवादित माना गया,लिहाजा उसका
उपयोग करने से दोनों तरफ के लोंगो को मना
किया गया.
जमीन किसानों की ,बंटवारा अफसरों ने कर दिया .एक
भी किसान उक्त मीटिंग में नहीं थे.
उस वक्त
का मानचित्र भी तैयार किया गया था जिसकी कॉपी राजस्व बिभाग के पास अब नहीं है.
दोनों जिलों के मीटिंग में रहने वाले किसी अधिकारी के कार्यालय में यह नक्शा नहीं
है.
इस तरह के गैर-जिम्मेदाराना बंटवारा पर विवाद तो
होना ही था, गाजीपुर के किसान बढ़-चढ़ कर जोतने लगे.कई बार विवाद हुआ. इसमें से काफी
जमीनों की खरीद-फरोख्त भी हो गयी.कैथी के किसानों ने स्थायी समाधान हेतु मुख्यमंत्री से गुहार
लगाई,और वहाँ से दबाब के तहत जून माह 2013 में पुन: कमिश्नर ने मीटिंग
बुलाई. इस बार भी एक भी किसान उक्त मीटिंग में नहीं थे.मानचित्र तैयार करने में
लापरवाही हेतु मातहतों को फटकारा भी गया .अब आप निर्णय करते रहिये कि मानचित्र खो
गया कि तैयार ही नहीं किया गया.1983 में बलिया जिला भी वाराणसी कमिश्नरी में था और गाजीपुर के
बहुत सारे राजस्व रिकार्ड बलिया जिले में हैं अत: वहाँ के अभिलेख अधिकारी को भी
जून के मीटिंग में बुलाया गया.
नक़्शे
को नहीं मिलना था,सो नहीं मिला. पत्राचार कर दिया गया है कि वाराणसी,गाजीपुर
,बलिया और राजस्व परिषद् इलाहाबाद उस नक़्शे को उपलब्ध कराएं.12 अगस्त 13 को वाराणसी
कमिश्नरी फिर मीटिंग हुई.बैठक में बलिया के सहायक भूलेख अधिकारी के न आने पर
मंडलायुक्त ने नाराजगी जताई.चकबंदी 1952 का सम्बंधित मौजा का पंचशाला नक्शा न
मिलाने से पूरा मामला अटका पडा है.वाराणसी के डीएम को निर्देश दिया गया कि सर्वे
के रिकार्ड मंगाकर नक़्शे की तलाश की जाय.डीएम ने कैथी के सुरेश प्रताप सिह
(शिकायतकर्ता)को भरोसा दिलाया कि नवम्बर में उक्त नक़्शे के साथ खुद चलकर नापी
कराउंगा .अभी भी जमीन के नक़्शे आन लाइन हो जायेंगे,यह दिवास्वप्न लगता है. अब यहाँ
के राजस्व,बित्त बिभागों तथा प्रशासन-शासन को तय करना है कि कम्प्यूटराइजेशन की
दशा,दिशा और रफ़्तार क्या होगी?
मीटिंग,मीटिंग के फैसले
और ब्यवहार में उसका पालन भिन्न- भिन्न हैं. कोई भी फैसले के
पालन के प्रति गंभीर नहीं है. अप्रैल २०१३ में एक
उच्चस्तरीय मीटिंग हुई . उत्तर-प्रदेश सरकार दिल्ली-मुंबई इंडस्ट्रियल कॉरीडोर (डीएमआईसी) के तहत यूपी में शुरुआत में हाईटेक इंट्रीग्रेटेड टाउनशिप का विकास करेगी। प्रोजेक्ट के तहत एक निवेश क्षेत्र तथा एक औद्योगिक क्षेत्र विकसित होगा। शुरुआत में यूपीएसआईडीसी तथा ग्रेटर नोएडा प्राधिकरण के पास मौजूद जमीन टाउनशिप के लिए उपलब्ध कराई जाएगी। इसके बाद जरूरत के हिसाब से हाईटेक इंट्रीग्रेटेड औद्योगिक टाउनशिप का विकास शुरू किया जाएगा। इसमें किसानों की सहमति से उनको स्टेक होल्डर बनाते हुए भूमि प्राप्त करने का प्रयास किया जाएगा। भूमि का मुनाफा उद्योग तथा सरकार को देने के बजाए किसानों को मिलेगा।
परियोजना के लिए दादरी-नोएडा-ग्रेटर नोएडा-गाजियाबाद क्षेत्र में 75 हजार करोड़ के निवेश की संभावना है। इससे लगभग 12
लाख लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध होंगे। इस क्षेत्र में इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटो इंडस्ट्रीज, आईटी तथा सनराइज इंडस्ट्री आएंगी। परियोजना पर केंद्र सरकार तीन हजार करोड़ रुपये खर्च करेगी।
इस परियोजना के तहत जवाहर लाल नेहरू पोर्ट मुंबई से शुरू होकर दादरी-ग्रेटर नोएडा तक 1483 किमी लंबा औद्योगिक गलियारा बनना है। इसमें सात निवेश क्षेत्र तथा 13 औद्योगिक क्षेत्र चिह्नित किए गए हैं। यूपी में निवेश क्षेत्र के दोनों ओर 150-200 किमी का क्षेत्र डेडीकेटेड फ्रेट कॉरीडोर के रूप में चिह्नित है। परियोजना में दादरी-नोएडा-गाजियाबाद निवेश क्षेत्र में बोडाकी रेलवे स्टेशन का विकास, नोएडा-ग्रेटर नोएडा में मेट्रो रेल का विकास, दादरी-तुलगकाबाद-बल्लभगढ़ रेलवे लाइन का विकास, नोएडा-ग्रेटर नोएडा-फरीदाबाद एक्सप्रेस-वे, ऑटो मार्ट का विकास, पावर प्लांट की स्थापना, लॉजिस्टिक पार्क एवं टाउनशिप का विकास जैसी योजनाएं प्रस्तावित हैं। प्रोजेक्ट के लिए पैसे की व्यवस्था डीएमआईसीडीसी तथा ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी द्वारा की जानी है।यह फैसला अप्रैल २०१३ में एक उच्चस्तरीय मीटिंग में लिया गया है.
इस परियोजना के तहत जवाहर लाल नेहरू पोर्ट मुंबई से शुरू होकर दादरी-ग्रेटर नोएडा तक 1483 किमी लंबा औद्योगिक गलियारा बनना है। इसमें सात निवेश क्षेत्र तथा 13 औद्योगिक क्षेत्र चिह्नित किए गए हैं। यूपी में निवेश क्षेत्र के दोनों ओर 150-200 किमी का क्षेत्र डेडीकेटेड फ्रेट कॉरीडोर के रूप में चिह्नित है। परियोजना में दादरी-नोएडा-गाजियाबाद निवेश क्षेत्र में बोडाकी रेलवे स्टेशन का विकास, नोएडा-ग्रेटर नोएडा में मेट्रो रेल का विकास, दादरी-तुलगकाबाद-बल्लभगढ़ रेलवे लाइन का विकास, नोएडा-ग्रेटर नोएडा-फरीदाबाद एक्सप्रेस-वे, ऑटो मार्ट का विकास, पावर प्लांट की स्थापना, लॉजिस्टिक पार्क एवं टाउनशिप का विकास जैसी योजनाएं प्रस्तावित हैं। प्रोजेक्ट के लिए पैसे की व्यवस्था डीएमआईसीडीसी तथा ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी द्वारा की जानी है।यह फैसला अप्रैल २०१३ में एक उच्चस्तरीय मीटिंग में लिया गया है.
इसी तरह की मीटिंग ०२ सितम्बर
२०११ को मुख्य सचिव अनूप मिश्र की
अध्यक्षता में हो चुकी है----उसके मिनट्स निम्न हैं- इंटीग्रेटेड और हाइटेक
टाउनशिप को लेकर मुख्य सचिव अनूप मिश्र की अध्यक्षता में हुई उच्चस्तरीय समिति ने आवास
विकास परिषद और विकास प्राधिकरणों को कुछ और सहूलियत दिये जाने को हरी झंडी दे दी
है। इंटीग्रेटेड टाउनशिप के उपयोग में आने वाली रिंग रोड और मास्टर प्लान रोड के
निर्माण के खर्च का भार सम्बंधित प्राधिकरण व इंटीग्रेटेड टाउनशिप के
विकासकर्ता आपसी सहमति के आधार पर उठाएंगे। ऐसे मामलों को शुरुआती दौर में ही शासन में
भेजने की आवश्यकता नहीं है। आपसी सहमति नहीं होने की दशा में शासन के पास मामला ले
जाया जाएगा। इसी प्रकार हाइटेक टाउनशिप के तहत 60 फीसदी जमीन लेने वाले विकासकर्ता के ले आउट
प्लान व भू उपयोग के मामले प्राधिकरण स्वयं पास कर सकेंगे। बाद में शासन की
औपचारिक अनुमति प्राप्त की जायेगी।
सूत्रों
के अनुसार लखनऊ और इलाहाबाद विकास प्राधिकरण की ओर से कहा गया
कि ऐसी रिंग रोड व मास्टर प्लान जिसका उपयोग इंटीग्रेटेड सिटी के वाशिंदे करेंगे, उन पर आने वाला खर्च प्राधिकरण व विकासकर्ता किस अनुपात में उठाएं। इस पर समिति ने कहा कि
आपसी सहमति के आधार पर प्राधिकरण व विकासकर्ता इस सम्बंध में
स्वयं तय कर लें। इसके बाद हाइटेक टाउनशिप के सम्बंध में कहा गया कि भूमि खरीद के मानकों को पूरा करने वाले
विकासकर्ताओं के मामलों में प्राधिकरण अनावश्यक विलंब न
करें।
दोनों
मीटिंग के कुछ शब्द सामान हैं, इंटीग्रेटेड
टाउनशिप ,आपसी सहमति,सहमति,औपचारिक अनुमति ,अनुमति,60 फीसदी ,रिंग रोड,मास्टर प्लान ,वाशिंदे,शासन,इत्यादि
.दोनों मीटिंग में अफसर और
विकासकर्ता तो थे,लेकिन एक भी किसान इसमें सम्मिलित नहीं किया गया.
वाराणसी में ही संदेह के कठघरे में विकास प्राधिकरण ,
पुलिस कार्यालय, अग्निशमन
विभाग, लोक निर्माण विभाग, बिजली विभाग, जल संस्थान, नगर निगम ,
तहसील और नजूल विभाग हैं.
वाराणसी कैंटोंमेंट क्षेत्र के होटल-मॉल मामले
में हुए घोटाले ने पूर्व सांसद व उनके भाइयों के साथ ही आधा दर्जन से अधिक विभागों
को भी कठघरे में खड़ा कर दिया है। इन विभागों ने मानचित्र पास होने से पूर्व
स्थलीय सत्यापन की रिपोर्ट दी थी। इन रिपोर्टो पर सवालिया निशान लगने लगे हैं।
सरकारी दस्तावेजों की मानें तो होटल-मॉल के लिए पूर्व सांसद के भाई ने विकास
प्राधिकरण में जो आवेदन दाखिल किया उसमें आराजी नंबर 8/ 2 दिखाया गया जिसका रकबा मात्र 18 बिस्वा है। इसी आराजी नंबर की खतौनी भी लगाई गई। इसकी
पत्रावली चलने लगी। इसी क्रम में विकास प्राधिकरण ने पुलिस कार्यालय, अग्निशमन विभाग, लोक निर्माण विभाग, बिजली विभाग, जल संस्थान, नगर निगम के साथ ही तहसील और नजूल विभागों से अनापत्ति
मांगी। इन सभी विभागों ने अपने कारिंदों द्वारा किए गए स्थलीय सत्यापन के हवाले से
अनापत्ति प्रमाणपत्र जारी कर दिया। वीडीए बोर्ड की बैठक में यह मामला रखा गया।
बैठक में बोर्ड अध्यक्ष/ कमिश्नर ने मामले को विकास प्राधिकरण उपाध्यक्ष को इस
टिप्पणी के साथ संदर्भित कर दिया कि पत्रावलियों और मामले की गहन जांच कर मानचित्र
की स्वीकृति के बाबत निर्णय लें। इस पर विकास प्राधिकरण उपाध्यक्ष ने 15 जुलाई 2003 को
मानचित्र को मंजूरी दे दी। इसके चंद दिनों के बाद विजय कुमार जायसवाल की ओर से एक
और आवेदन विकास प्राधिकरण को दिया गया जिसमें कहा गया कि मानचित्र पर गलती से
आराजी नंबरी 8/ 2 लिख दिया गया था। यह
वास्तव में आराजी नंबर 3 है। इसे
संशोधित कर दिया जाए। खास बात यह कि आराजी नंबर 3 का रकबा 8/ 2 से
कई गुना अधिक 290 बिस्वा है। जानकारों की
मानें तो इस आवेदन के मिलने के बाद विकास प्राधिकरण को नये सिरे से पत्रावलियां
चलानी चाहिए थी। सभी विभागों से नया अनापत्ति प्रमाणपत्र लिया जाना चाहिए था लेकिन
ऐसा न कर 18 मई 2006 को संशोधित मानचित्र को भी मंजूरी दे दी गई। ताज्जुब की बात
यह भी है कि मानचित्र में भूखंड के एक-एक इंच का हिसाब दर्ज रहता है। फिर भी किसी
विभाग को यह नजर नहीं आया कि होटल-मॉल 18 बिस्वा के भूखंड पर नहीं बल्कि 290 बिस्वा जमीन पर बन रहा है। इसे विशेष जांच प्रकोष्ठ
(एसआईएस) ने बेहद गंभीरता से लिया है। जमीन के सम्बन्ध
में कितने जघन्य और घृणित कार्य सरकारी महकमों द्वारा किया जाता है,यह सर्व बिदित
है.वाराणसी में डी० आई० जी० तक का बंगला और जमीन
बिक चुकी है.उसकी रक्षा नहीं हो सकी तो थाना दिवस व तहसील दिवस और अफसर
जमीन के सम्बन्ध में क्या कारगर कार्यवाही कर सकेंगे? मकबूल आलम रोड स्थित डीआईजी बंगले का एक लंबा इतिहास है।
आजादी के पूर्व 1922 से इसका ब्योरा नगरपालिका के दस्तावेजों में दर्ज हैं। उस
दौरान का असेसमेंट रजिस्टर बताता है कि पहले यहां आबकारी कार्यालय रहा। वह भी 125
रुपये प्रतिमाह किराए पर। बंगले पर औसानगंज इस्टेट का अधिपत्य था। 1927 में यह
सीएमओ का बंगला हो गया। 1940 में औसानगंज इस्टेट का नाम कट गया और बद्री केदार
नारायण सिंह का नाम चढ़ गया। दस्तावेजों के मुताबिक आजादी के बाद से फरवरी 1969 तक
बंगला जनकनंदिनी के नाम था। इसके बाद आनंद अग्रवाल को 18 हजार रुपये में बेच दिया
गया। 30 बिस्वा में स्थित डीआईजी आवास (गाटा 93) परिसर को वर्ष 2006 में विभिन्न
तिथियों में दस्तावेजों में हेराफेरी कर विभिन्न लोगों ने अपने नाम करवाया। इस बीच
राकेश श्रीवास्तव 'न्यायिक' ने इस मामले में रूचि लेते हुए तहसीलदार व कोर्ट में धारा
156 (3) के तहत प्रार्थना पत्र देकर कार्यवाही की मांग की। मामले पर अदालत ने
फैसला सुरक्षित कर लिया था लेकिन बहस के दौरान बचाव पक्ष की यह दलील पुलिस अफसरों
को खल गई कि डीआईजी का खुद का भारी-भरकम अमला है। इसके बावजूद असंबद्ध पक्ष राकेश
न्यायिक की ओर से मुकदमे के लिए पहल की गई है। समझा जाता है कि इसे ही गंभीरता से
लेने के कारण पुलिस ने इस मामले में पूर्व सांसद के भाई समेत 11 लोगों के खिलाफ
धारा 419,
420, 467, 468, 471 व 120बी
के तहत मुकदमा दर्ज कराया है। सोएपुर शराब त्रासदी के बाद सांसद के जमीन घोटाले के
प्रकरण सामने आए थे। उसी क्रम में डीआईजी बंगला का मामला भी उछला था। सुअरबड़वा
स्थित सरकारी जमीन पर पूर्व सांसद के भाई द्वारा किया गया नाजायज कब्जा अभी ढहाया
गया है। मॉल-होटल का घोटाला भी अभी विचाराधीन है। इस बाबत भी मुकदमा दर्ज हो चुका
है.
उत्तर प्रदेश में सार्वजनिक भूमि पर बने अवैध धार्मिक स्थलों में से अधिकांश को वैध किया जाएगा। उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जो लेखाजोखा पेश किया है उसका यही निष्कर्ष निकलता है। राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किए गए अपने ताजा हलफनामे में कहा है कि राज्य में कुल 45,152 अवैध धार्मिक स्थल हैं। इनमें से
47 धार्मिक स्थल हटाए गए हैं जबकि 26 दूसरी जगह स्थानांतरित किये गये हैं। राज्य सरकार ने कहा है कि 27,345 निर्माण चिन्हित किए गए हैं जिन्हें संबंधित जिला स्तरीय समितियों ने नियमित करने का निर्णय लिया है। बाकी के बारे में अभी विचार चल रहा है। राज्य सरकार ने बताया है कि सार्वजनिक स्थलों से अवैध धार्मिक स्थल हटाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल किया जा रहा है। सरकार ने अवैध धार्मिक स्थलों के बारे में 29 जुलाई 2010 को एक नीति भी तय की है जिसके मुताबिक प्रत्येक अवैध धार्मिक स्थल के बारे में अलग अलग विचार करके निर्णय लिया जा रहा है। इसके लिए जिला स्तरीय और मंडल स्तर की समितियां विचार कर रही हैं। सरकार ने तय नीति भी कोर्ट के सामने पेश की है। राज्य सरकार की ओर से यह हलफनामा सुप्रीमकोर्ट के गत वर्ष 27 जुलाई के आदेश पर दाखिल किया गया है। उस आदेश में कोर्ट ने राज्य सरकार को हलफनामा दाखिल कर यह बताने का निर्देश दिया था कि प्रदेश में 29 सितंबर 2009 के पहले के कितने धार्मिक स्थल सार्वजनिक भूमि पार्क आदि में बने हुए हैं। कोर्ट के आदेश के बाद सरकार ने कितने ऐसे निर्माण हटाये हैं, स्थानांतरित किए है या नियमित किए हैं। कोर्ट ने सरकार से जिलेवार ब्योरा मांगा था। मालूम हो कि सुप्रीम कोर्ट सार्वजनिक स्थलों पर स्थित अवैध धार्मिक स्थलों के मामले में सुनवाई कर रहा है। पीठ ने सभी राज्यों से यह ब्योरा मांगा है।
गूगल ने पूरे विश्व के नक़्शे आन लाइन कर दिया है..ऐसे साफ्टवेयर
हैं जो आपकी पाकिट में रहने पर विश्व में कहीं भी होटल,रेस्टोरेंट,बस स्टेशन,रेलवे
स्टेशन और मकान की दूरी मीटर से कि०मी० तक में बता देते हैं. कार में ऐसा G.P.S है,जो आपको निश्चित
निर्धारित जगह बताते हुए ले जाता है. किसी से न पूछने की जरूरत,न भटकने की.
कम्प्यूटर के जमाने में भी अफसरों का जमीन
,संपति और संसाधनों को इस स्थिति में में लाकर खडा कर देना कि वे किसी जनसामान्य
के उपभोग करने लायक ही न रह
जाँय,आश्चर्यचकित करता है. यह कार्य डंके की चोट पर नियम-क़ानून की धज्जियां
उड़ाते हुए की जाती हैं. एक वाकिया चंदौली का है.२०१०-११ में पिछड़ा अनुदान का १६.५
करोड़ रूपये आया. नियम के अनुसार इस मद का ७० प्रतिशत ग्राम पंचायत ,१०% क्षेत्र
पंचायत और २०% जिला पंचायत को मिलना
चाहिए. मद का ९०% जिला पंचायत को दे दिया गया. अब जिले की ६२० ग्राम पंचायत अफसरों
के आगे गिड़गिड़ाने के लिए बाध्य है.
अदालत और अस्पताल कोई शौकिया नहीं जाता है. बड़ी
अदालत व बड़े अस्पताल जाने का मतलब कि मामला/रोग गंभीर है. जमीन ,संपत्ति और संसाधन
की अनियमित लूट के सम्बन्ध में उच्च तथा उच्चतम न्यायालय ने प्रशासन के कई गलत
कार्यों को जुर्माना लगाते हुए रोका तथा प्रभावी रोक हेतु सक्षम क़ानून बनाने की
सलाह भी दिया है.
सरकारी जमीन ,संपत्ति,और संसाधन के
बारे में अफसरों को कोई जानकारी नहीं है ,और अपने इसी अज्ञान की बदौलत जनता को भी
संकट में डालते हैं.कभी-कभी दो बिभागों का एक दूसरे के नियम-क़ानून की अज्ञानता,तो
कभी बर्चस्व की लड़ाई.सबसे दिलचस्प स्थिति उस समय होती है,जब टेक्नोक्रेट व
ब्यूरोक्रेट किसी समस्या के हल हेतु साथ-साथ मंथन करते हैं. टेक्नोक्रेट बेचारा
बना बैठा रहता है और उसकी सलाह दर किनार कर निर्णय होते रहते हैं.अक्ल बड़ी कि भैंस.और
जहां भैंस बड़ी होगी वहाँ दुर्गति तो होनी ही है.एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट करता
हूँ:- सोनभद्र की राबर्ट्सगंज तहसील में इंजीनियरिंग कालेज का निर्माण होना था.
स्थल चयन के लिए सरकार की ओर से गठित चार सदस्यीय बिशेषज्ञ समिति ने चुर्क गाँव
केखसरा/सर्वे नंबर 613 को उपयुक्त नहीं पाया.
बिशेष सचिव
मुख्यमंत्री ने 23 मार्च 13 को इंजीनियरिंग कालेज के निर्माण हेतु जमीन उपलब्ध कराने के लिए कलक्टर
को पत्र लिखा. कलक्टर ने राजस्व व बन बिभाग के अधिकारियों को कार्यवाही हेतु
कहा.सभी नियम,अधिनियम और कानून को दर किनार करते हुए राबर्ट्सगंज उप जिलाधिकारी ने
उ०प्र० जमींदारी विनाश एवं भूमि ब्यवस्था अधिनियम के 161 धारा का सहारा लेते
हुए चुर्क गाँव केखसरा/सर्वे नंबर 613 की
4.5 हेक्टेयर व 606 की 0.5 हेक्टेयर आरक्षित बन भूमि को इंजीनियरिंग कालेज को तथा मड़कुड़ी गाँव केखसरा/सर्वे नंबर 1019 एक हेक्टेयर तथा 990 चार हेक्टेयर को बन बिभाग
को अदला-बदली(Exchange) करते हुए दे दिया. आदेश दिया कि बन बिभाग भारतीय बन
अधिनियम की धारा 4 से मड़कुड़ी गाँव केखसरा/सर्वे नंबर 1019 एक हेक्टेयर तथा
990 चार हेक्टेयर को भारतीय बन अधिनियम की धारा 4 से आच्छादित करे तथा प्राबिधिक
शिक्षा बिभाग चुर्क गाँव केखसरा/सर्वे नंबर 613 की 4.5 हेक्टेयर व 606 की 0.5
हेक्टेयर आरक्षित बन भूमि पर अपना नाम दर्ज करा ले. एक तरफ ने उ०प्र० जमींदारी
विनाश एवं भूमि ब्यवस्था अधिनियम दूसरी तरफ भारतीय बन अधिनियम की धारा 4 और सबसे
ऊपर उप जिलाधिकारी का आदेश. बन संरक्षण अधिनियम और सुप्रीम कोर्ट के आदेश हैं
कि कोई भी बन भूमि पर्यावरण एवं बन
मंत्रालय की अनुमति के बिना हस्तांतरित नहीं की जा सकती है,तथा उ०प्र० जमींदारी
विनाश एवं भूमि ब्यवस्था अधिनियम आरक्षित बन भूमि पर लागू नहीं होता. अब केंद्र
सरकार के पर्यावरण एवं बन मंत्रालय (MOEF) के मध्य क्षेत्र कार्यालय ने सोनभद्र के
प्रभागीय बन अधिकारी व राबर्ट्सगंज उप जिलाधिकारी और राबर्ट्सगंज तहसीलदार को बन संरक्षण अधिनियम के
उल्लंघन के लिए नोटिस भेजा है.ब्यूरोक्रेट उप जिलाधिकारी व तहसीलदार टेक्नोक्रेट
केन्द्रीय बन अधिकारी की नोटिस को अपनी अर्धन्यायिक व न्यायिक प्रक्रिया में गलत
दखल बता रहें हैं. मुश्किल को गैरमुमकिन बनाने का काम करने में अपने अफसरों का कोई जवाब नहीं। वे राह में इतनी मुश्किलें खड़ी करने में माहिर हैं कि होता हुआ काम भी न होने की स्थिति में आ जाए।
जमीन के सम्बन्ध में उच्च न्यायालय इलाहाबाद के तीन
निर्णय पढ़ने योग्य हैं,जिसमें बिस्तार से
अफसरों के कारनामों की चीर-फाड़ की गयी है.
1-Amit Kumar vs State Of Uttar
Pradesh And Ors. (2003) 2 UPLBEC 1733
(http://www.indiankanoon.org/doc/143463/)
Bench: M Katju, R
Tripathi
Allahabad High Court
इस वाद में तथ्य यह था कि
केंद्र सरकार की १६० एकड़ जमीन कैंट (नदेसर )वाराणसी में है,जिसका खसरा/सर्वे नंबर १७ है.जो रक्षा बिभाग की
है.रक्षा बिभाग ने इसकी आमदनी के ३/४ भाग को नगर पालिका/जिला पंचायत और १/४ भाग
राज्य सरकार को देने का MoU
१८९६ में किया था.
अफसरों ने इस जमीन के कुछ रकबे को 17.7.1957 को लीज पर दिया .
बाद में १६००० रुपये में फ्रीहोल्ड करते हुए 2.5.98 को बिक्री-पत्र लिख दिया. 21.3.2001 को उक्त लेखपत्र के
निरस्तीकरण की नोटिस दे दिया.
17.11.1997 को ही Defence
Estate Officer, Allahabad पत्र लिख चुके थे
कि कोई बैनामा इत्यादि उक्त जमीन का न किया जाय.
खतौनी में रक्षा बिभाग दर्ज है.
11.5.1898 को कमिश्नर का पत्र रहते हुए कि वाराणसी नगर निगम को केवल उक्त जमीन पर
सुखाधिकार उपभोग करने का अधिकार है.यह कार्यवाही कर डाली गयी. 11.5.1898 का पत्र काफी बिचार-बिमर्श के बाद लिखा गया था.
कैंट क्षेत्र की जमीन व बंगलों के बारे में स्थिति यह है कि छावनी में तीन तरह के बंगले मौजूद हैं। ओल्ड
ग्रांट प्रापर्टी एक स्थाई संपत्ति है, जिस पर जब तक सेना न चाहे संपत्ति का मालिकाना
हक बना रहेगा। दूसरे लीज पर दिए गए बंगले हैं, जिसमें कैंट कोड एक्ट 1911-12 के तहत मामूली
वार्षिक शुल्क पर 99 बरस की लीज दी गई है। लीज की दूसरी पॉलिसी 1925 शिड्यूल 6 के
तहत है। इसमें 90 बरस की लीज मिलती है, जिसे हर तीस साल बाद रिन्यू किया जाता है।
तीसरी फ्री होल्ड प्रॉपर्टी है, जिनकी संख्या बेहद कम है। कैंट कोड के तहत जिन
बंगलों के पट्टे हुए थे, उनकी अवधि 2010-11 में खत्म हो गयी है। शिड्यूल 6 के बंगलों की अवधि 2015 तक है।
इसके चलते उत्तरांचल और यूपी की छावनियों के बंगला मालिक लीज बढ़ाने के लिए रक्षा
संपदा अधिकारी के कार्यालय में आवेदन कर रहे हैं, लेकिन अफसरों के पास लीज बढ़ाने का आदेश नहीं
हैं। सूत्रों का कहना है कि भारतीय सेना छावनियों में मौजूद बंगलों की लीज दोबारा
करने के पक्ष में नहीं है। । रक्षा मंत्रालय ने भी दोबारा लीज रिन्यू करने पर ठंडा
रुख कर रखा है। इसके लिए न तो पॉलिसी
तैयार की है और ना ही सेना तैयार है।सेना पहले ही सरकार से इन बंगलों को अधिगृहीत
करने की मांग कर चुकी है। इस पर संसदीय कमेटी गठित हुई और उसकी रिपोर्ट पर अभी
विचार कर अंतिम फैसला सरकार लेगी।
सशस्त्र सेनाओं को उनके ठिकानों से लगी जमीन पर भी वीटो
प्राप्त है। सशस्त्र सेनाओं से अनापत्ति प्रमाणपत्र [एनओसी] लिए बिना उनके
ठिकाने से लगी जमीन की बिक्री या उस पर कोई निर्माण नहीं किया जा सकता। आंकड़ों के
मुताबिक अकेले रक्षा मंत्रालय के पास देशभर में 17.3 लाख एकड़ जमीन है। यह राजधानी
दिल्ली के क्षेत्रफल से करीब पांच गुना ज्यादा है। रक्षा मंत्रालय की इस जमीन में
देश के 19 राज्यों में 62 छावनियों के अलावा, फायरिंग रेंज, हवाई अड्डे, बंदरगाह और अन्य महत्वपूर्ण सैन्य प्रतिष्ठान स्थित हैं। देश की सशस्त्र
सेनाओं में भी सबसे ज्यादा 13.79 लाख एकड़ जमीन सेना के पास है। रक्षा, रेलवे और बंदरगाह जमीन के मामले में भारत के तीन सबसे धनी
सरकारी विभाग हैं। भू-माफिया इस बेशकीमती जमीन को हथियाने की ताक में रहते हैं।
हाल का सुकना जमीन घोटाला भी इसी तरह का मामला है, जिसमें सेना के चार आला अधिकारी फंसे हैं। सेना से एनओसी लेकर दार्जिलिंग की
सुकना छावनी से लगी 71 एकड़ जमीन एक भवन निर्माता को हस्तांतरित कर दी गई थी। यह
भवन-निर्माता सेना के एक आला अधिकारी का करीबी मित्र बताया जाता है। मुंबई. मुंबई
की आदर्श हाउसिंग सोसायटी की इमारत में फ्लैटों के आवंटन को लेकर सियासी गलियारे
से लेकर रक्षा मंत्रालय तक में हड़कंप मचा है।
अगर
आप छावनी परिषद् के अन्दर निर्माण करा रहे
हैं तो छावनी अधिनियम 2006 के अंतर्गत मुख्य अधिशासी अधिकारी छावनी परिषद् की
लिखित अनुमति चाहिए. छावनी अधिनियम 2006 की धारा 238 के अंतर्गत मानचित्र स्वीकृत
कराना अनिवार्य है. निर्माण के पूर्व उक्त अधिनियम की धारा 234,235 व 236 के
अंतर्गत नोटिस देना आवश्यक है. बिना इसके
निर्माण धारा 247 के अंतर्गत दंडनीय अपराध है और धारा 248 व 320 के अंतर्गत
निर्माण ध्वस्त किया जा सकता है.
सरकारी
जमीन ,संपत्ति,और संसाधन के बारे में अफसरों के यह ज्ञान है,और अपने इसी
ज्ञान की बदौलत जनता को भी संकट में डालते हैं.
2-Satya
Narain Kapoor v. State of U. P. and Ors., Writ Petition No. 32605 of 1991 : Decided on 15 October, 1997
उल्लेखनीय है कि उच्चतम न्यायालय ने इस निर्णय
को टेक्नीकल (Non-joinder and Mis-joinder)आधार पर निरस्त करते हुए अपने निर्णय में उच्च न्यायालय के
फैसले की तारीफ़ करते हुए लिखा है कि निर्णय का अकादमिक (academic)) महत्व रहेगा और इस महत्व के कारण इसे संदर्भित और उद्धृत किया जाएगा.
3-Chandra Bhan And
Parashu Ram, Both Sons Of Palki vs Deputy Director Of Consolidation And Ors. on
13 December, 2005
जमीनों का बंदरबांट दिल्ली के कुछ नेताओं और अफसरों के बीच हो चुका है और इस जमीन की निगरानी करने वाले अधिकारी कान में तेल डालकर सोते रहे। । इस घोटाले की जड़े भ्रष्टाचार के लिए बदनाम दिल्ली की सबसे बड़ी एजेंसी दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) तक फैली हुई हैं। इस एजेंसी की जमीन पर कब्जा कर कागज पर कालोनी बसा दी गई,
उसके बदले प्रोविजनल सर्टिफिकेट ले लिया गया सरकार ने चार ऐसी कालोनियों को प्रोविजनल सर्टिफिकेट बांट दिए, जहां पर अभी भी कालोनी नहीं है। जमीन खाली है। कहीं कीचड़ है तो कही पशुओं का चारागाह हैं। बताया जा रहा है कि इन डर से सीमा रेखा नहीं खींची गई है कि विपरीत स्थिति आने पर बचा जा सके।। चारों कालोनियों के कुल जमीन का रकबा करीब 125 बीघा बताया जा रहा है। राधा कृष्ण विहार (पंजीकरण संख्या 1600), कोटला महीगराम एक्सटेंशन, जसोला, सरिता विहार, नई दिल्ली-76
(पंजीकरण संख्या 26 एलओपी), अबुल फजल एनक्लेव पार्ट-2 जी एच ब्लॉक (पंजीकरण संख्या 1182) तथा शक्ति एनक्लेव (पंजीकरण संख्या 100) घोटाले की आधारशिला वर्ष 2008 में रखी गई।
नेकनीयत से किसी
समिति या मीटिंग में सम्मिलित होने के लिए बुलावा तो ठीक है,लेकिन केवल यह सिद्ध
करने के लिए कोई बिभाग या टेक्नोक्रेट को समिति या मीटिंग में सम्मिलित करना कि
बिभाग या टेक्नोक्रेट उस समिति या मीटिंग के लाँमेकर,व ब्यूरोक्रेट के मातहत
हैं,उन्हें समिति या मीटिंग में आने का निर्देश देना गलत है. एफएम रेडियो स्टेशनों
की नीलामी की निगरानी करने वाली समिति में केन्द्रीय सतर्कता आयोग व भारत के
नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक के प्रतिनिधि सम्मिलित होने से इनकार कर चुके हैं. एफएम
रेडियो स्टेशन के लिए लाइसेंस आबंटन को लेकर संभावित आलोचनाओं और विवादों से बचने
के तौर पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर मंत्रालयी निगरानी समिति ने उन्हें सम्मिलित करने का अनुरोध/निर्देश
जुलाई १३ को दिया था.
राजस्व बिभाग ने खतौनी को
लगभग आन-लाइन कर दिया है. अब खसरा को आन लाइन करने के लिए नियोजन विभाग ने भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) का सहारा लिया है। विभाग ने इसकी जिम्मेदारी रिमोट
सेन्सिंग एप्लीकेशन सेंटर को सौंपी है। पायलट परियोजना के तौर पर यह काम जालौन जिले में शुरू किया गया है।
बाद में इस परियोजना को पूरे प्रदेश में क्रियान्वित करने की योजना है। नियोजन विभाग ने यह जिम्मेदारी रिमोट सेन्सिंग एप्लीकेशन सेंटर को सौंपी है और वर्ष 2008-09 के लिए उसे 50 लाख रुपये स्वीकृत भी किये हैं। राजस्व परिषद के रिकार्ड में खेती के
लगभग ढाई करोड़ खाते हैं। एक खाते में औसतन तीन से चार खसरे होते हैं। इस लिहाज से
प्रदेश में साढ़े सात करोड़ से दस करोड़ खसरे होने का अनुमान है। रिमोट सेन्सिंग एप्लीकेशन सेंटर के निदेशक डा.एएन सिंह ने बताया कि सिजरा मानचित्रों के
कम्प्यूटरीकरण के लिए आईआरएस श्रेणी के रिसोर्ससैट सैटलाइट द्वारा खींचे गए उपग्रहीय
चित्रों का इस्तेमाल किया जायेगा। यह तस्वीरें भौगोलिक परिदृश्य की वास्तविक
तस्वीर पेश करेंगी। इन चित्रों को सिजरा मानचित्र पर रखकर जीआईएस तकनीक के जरिये उनका
कम्प्यूटरीकरण किया जायेगा।
इस परियोजना का
फायदा यह होगा कि इससे खसरे का पूरा रिकार्ड कम्प्यूटर पर उपलब्ध होगा। कम्प्यूटर के
जरिये खसरे से जुड़ी कई महत्वपूर्ण जानकारियां हासिल हो पायेंगी। मसलन, खसरे में कौन सी
फसल बोयी गयी है, उसका कितना क्षेत्र सिंचित है और कितना असिंचित, सिंचाई का साधन
क्या है, आदि। बाढ़ आने पर
इस बात का भी सटीक तरीके से पता लगाया जा सकेगा कि किसी किसान की कितनी फसल
पानी में डूबी है और उसी आधार पर उसे उचित मुआवजा भी दिया जा सकेगा। नियोजन विभाग की मुहिम अगर परवान चढ़ी तो भविष्य में किसानों को खसरे का
दस्तावेज हासिल करने के लिए न तो लेखपालों की गणेश परिक्रमा करनी होगी और न ही तहसील कार्यालय के चक्कर काटने होंगे। खेती से
जुड़ा यह अहम दस्तावेज उन्हें इन्फार्मेशन क्यास्क पर कम्प्यूटर से मिलने लगेगा।( नियोजन विभाग की मुहिम आज तक परवान
नहीं चढ़ी)
अफसर, व सेवा प्रदाता के
काम करने का वही पुराना ढंग है . सरकार और उसके काम
का तरीका बड़ी मुश्किल से बदलता है। इसका ताजा उदाहरण जिला परिवहन व उप-निबंधक कार्यालय है। हर दिन यहां से सरकारी खजाने में
लाखों का राजस्व जाता है। फिर भी आठ साल से यहां नया कम्प्यूटर नहीं
लग सका। बाबा आदम के जमाने के कम्प्यूटरों के कारण हर दिन यहां आने वालों को
परेशानियों का सामना करना पड़ता है। मिली जानकारी के अनुसार पिछले वर्ष अप्रैल महीने में ही
मुख्यालय की तरफ से इस कार्यालय को कुछ नये कम्प्यूटर मिले। उम्मीद की गई कि नये कम्प्यूटरों के आने से कार्यालय के सभी
काउंटर काम करने लगेंगे। लेकिन कम्प्यूटर लगभग एक साल तक डिब्बों में बंद रहे। पिछले दिनों इन कम्प्यूटरों को लगाने की
कार्रवाई शुरू हुई। कम्प्यूटर डिब्बों से निकाल कर लगा दिये गये। नया सर्वर भी आ गया, लेकिन अब साफ्टवेयर नहीं मिल रहा है। जानकार बताते हैं कि एनआईसी की टीम साफ्टवेयर के लिए दिल्ली गई हुई है।
अधिकारियों को उम्मीद थी कि नये कम्प्यूटर लग जाने के बाद लोगो को सुविधा होगी। लेकिन विशेषज्ञों ने पुराने
सभी कम्प्यूटरों को कंडम करार दिया है। अधिकारियों की स्थिति ढाक के तीन पात वाली हो गई है। काम करने के लिए फिर कंडम
कम्प्यूटर ही मिलेंगे। उन्हें इस बात का संतोष दिलाया जा रहा है कि नये कम्प्यूटर पर तेजी से काम होगा। विशेषज्ञ बताते हैं कि
कम्प्यूटर इतने पुराने हो चले हैं कि अब इनका पार्ट- पुर्जा भी बाजार
में नहीं मिलता है। ऐ । नये सर्वर पर पुराने कम्प्यूटर चलेंगे भी नहीं। अब अधिकारियों
के पास इन कंडम
कम्प्यूटरों को वापस विभाग भेजने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं रह गया है।
उत्तर-प्रदेश में ई –गवर्नेंस के कुछ बिंदु:--
1. Finance Department
§ U.P. Treasuries (KOSHVANI)
§ Budget
Ø Pension Management System:- The Integrated Pension Management System
(IPMS) executed in 1999 at Pension Directorate and Regional Additional
Directors Offices not only takes care of Pre Pension Processing but
also generates all Master Indexes, all authorizations (PPO,GPO,CPO) with
scanned photographs and signatures which helps in proper identification of the
Pensioner. This software (IPMS) has some unique features like
–Revision of Pension, Family Pension and Gratuity through auto
calculation, Arrear calculation, Pensioner detail maintenance, Pension enquiry,
Receipt and Dispatch of the letters, Pension Adalat Monitoring etc
2. e-Procurement
3. Land
Records (BHULEKH)
4.UPSWAN (UP State Wide Area Network)
5.SMART City Project (e-Suvidha)
6.Lokvani
7.Monitoring of court cases through
Computerisation
8.Property Evaluation and RegistratioN
Application (PRERNA)
9.Commercial Tax (VAT)
10.Capacity Building - eGovernance and
e-Patravali
11. e-Stamping
कचहरी में आम बोलचाल की भाषा में वकील लोग उपरोक्त को इन संबोधनों
से पुकारते हैं ,कि परलोकवाणी (लोकवाणी),
ई-असुविधा(ई-सुविधा )और बेकल खिड़की (एकल खिड़की) से यह प्रमाण-पत्र/सूचना मिलेगी.
देश में १९९१ से यह कार्य शुरू
है. बिभिन्न राज्य में जमीन सम्बंधित कार्य के लिए NIC ने बिभिन्न साफ्टवेयर इजाद किये हैं. Bhoomi – Karnataka २००१-०२ में , Integrated
Land Information System (ILIS) – Andhra Pradesh , SARITA-Maharastra 2002 , PRERNA –Uttar Pradesh 2005 हैं,जिनपर कार्य हो रहा है.
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